
Soal Land Fary Tail
उस दिन उसने दफ़्तर में ओवर टाइम किया और जब अंधेरा ख़ासा बढ़ गया तो वो दफ़्तर से बाहर निकली और भूरे रंग का पर्स झुलाती हुई सामने आसिफ़ अली पार्क में चली गई और एक बेंच पर तन्हा बैठ गई। ये पार्क दिल्ली गेट के सामने एक छोटा सा ख़ामोश गोशा था। चंद पेड़ थे, चंद बेंचें थीं। चंद क़ते थे घास के... उनके चारों तरफ़ ट्रैफ़िक का शोर था। मगर आज यहां निस्बतन ख़ामोशी थी। सुधा हर रोज़ यहां आती थी और आध-पौन घंटा अकेले बैठ कर ताज़ा दम होती थी। थोड़े अर्से के लिए अपने ख़यालों की लहरों पर दूर तक तैरती हुई निकल जाती... उसे तन्हाई से डर न लगता था। तन्हाई उसका वाहिद सहारा थी। अंधेरे से उसे डर न लगता था बल्कि अंधेरा उसका दोस्त था। ग़ुंडों से उसे डर न लगता था। जाने उसकी शख़्सियत में कौनसी ऐसी बात थी कि गुंडे भी उसे दूर ही से सूंघ कर चल देते थे, कतरा कर निकल जाते थे। आज अंधेरा था और पेड़ के नीचे गहरी ख़ामोशी। पत्थर का बेंच भी ख़ूब ठंडा था। चंद मिनट तक सुधा ख़ामोशी से उस बेंच पर बैठी रही मगर जब उसकी तकान न गई तो वो उठकर पेड़ के नीचे चली गई और तने से टेक लगा कर बैठ गई और आँखें बंद कर लीं। यकायक किसी ने उससे कहा, तुम यहां क्यों बैठी हो? अकेली? सुधा ने आँखें खोलीं। सामने मोती मुस्कुरा रहा था। वही ख़ूबसूरत ब्राउन सूट पहने, वही सपेद दाँतों वाली जगमगाती हुई मुस्कुराहट... उसके हाथ उतने ही ख़ूबसूरत थे... सुधा के हलक़ में कोई चीज़ आ के रुकने लगी। वो बोल न सकी। मोती उसके क़रीब आ के बैठ गया। इतना क़रीब कि उसकी पतलून उसकी सारी से मस हो रही थी। उसने आहिस्ते से पूछा, तुम्हें मेरे इनकार पर ग़ुस्सा आ रहा है ना? सुधा ने आहिस्ते से सर हिलाया। उसकी आँखों में आँसू आ गए
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